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* तृतीय सर्ग. "धर्मस्य दया जननो, जनकः किल कुशल कर्म विनियोगः ।
श्रद्धा च वल्लभेयं, सुखानि निखिलान्य पत्यानि ॥" अर्थात्-“दया धर्मकी माता है, कुशल कर्मोंका विनियोग धर्मका पिता है, श्रद्धा धर्मकी वल्लभा-स्त्रो है और समस्त सुख उसके सन्तान हैं।” चतुर्विध संघ, जिनबिम्ब, जिनचैत्य और आहेत-भागम-इन सातोंको ज्ञानियोंने धर्मक्षेत्र बतलाया है। गुरुके प्रति विनम्रता, साधुकी संगति, और उत्तम सत्वका धारण अर्थात् निवय, विवेक, सुसंग और सुसाधुत्त्व-यह चार गुण लौकिक व्यवहारमें भी प्रशंसनीय माने जाते हैं। लोकोत्तरके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ?
हे कुबेर ! तू राजपुत्र होकर अश्वपर आरोहण करता है और यह सेवक तेरी सेवा करते हैं, इसका क्या कारण है ? विचार करनेपर मालूम होता है कि इसमें भी धर्म ही हेतु है, इसलिये जीवादि पदार्थ विद्यमान हैं।
मुनीश्वरके यह वचन सुनकर कुबेरको ज्ञान हुआ। उसने खड़े हो, उत्तरासंग और तीन प्रदक्षिणा देकर गुरुके चरण कमल को नमस्कार किया और हाथ जोड़कर कहने गला-“हे भगवन् ! आपने जो कुछ कहा, वह यथार्थ है । अब मुझे धर्मतत्त्व विस्तार पूर्वक बतलानेकी कृपा करें।" गुरुदेवने प्रसन्न होकर कहा-"हे कुबेर ! तुझे धन्य है। तूने बड़ा ही अच्छा प्रश्न पूछा है। मैं तुझे धर्मतत्त्व बतलाता हूं। ध्यानपूर्वक श्रवण कर।
"यथा चतुर्भिः कनक परीक्ष्यते, निघर्षण च्छेदन ताप ताडनैः। तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते, श्रुतेन शीलेन तपोदया गुणैः॥"