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* तृतीय सर्ग
२०५ सकता है । कष्टसे तो कष्टकारी ही फल मिल सकता है । जीवका अभाव होनेसे धर्मका अभाव भी सिद्ध हो जाता है। निमित्तके अभावमें नैमित्तिकका भी अभाव ही मानना चाहिये।"
__ कुबेरकी यह बातें सुन शान्तात्मा मुनिने कहा-“हे देवानां. प्रिय ! युक्ति वचनसे विपरीत मत बोल। जिस तरह कोई “मेरी माता बन्ध्या” यह कहे, उसी तरह तू जीवका अभाव सिद्ध करता है, यह ठीक नहीं। जीव ज्ञानसे प्रमाणित होता है । वह इन्द्रिय गोचर नहीं है। आत्मा चर्म चक्षुवाले जीवोंको नहीं दिखायी देता, किन्तु परम ज्ञानियोंको ज्ञानसे दिखायी देता है। पृथ्वी प्रभृति पाँचों पदार्थ अचेतन हैं किन्तु जीव चेतना लक्षण है। कहा भी है कि “चेतना, स, स्थावर, तीनवेद, चारगति, पंच इन्द्रिय और छः काय-इन भेदोंसे जीव एकविध, द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध, पंचविध और षड्विध कहलाता है। यदि जीव न हो, तो बाल्यावस्थामें जो किया या भोगा जाता है उसका स्मरण वृद्धावस्थामें कहाँसे आये ? और किसे आये? इस प्रकारको स्मरणशक्ति जीव हीमें है, पृथ्वी आदि अचेतन पदार्थोंमें नहीं। इससे जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है। धर्माधर्म भी है और यथोक्त धर्माधर्मका भोक्ता जीव चैतन्य लक्षण युक्त है। जिस प्रकार निवोदित अंकुरसे भूमिमें छिपे हुए बीजका अनुमान किया जाता है, उसी तरह सुख दुःखसे पूर्वजन्मके शुभाशुभ कर्मोंका अनुमान होता है। देखो, अनेक मनुष्य नाना प्रकारके उपकरणोंसे परिपूर्ण महल जैसे निवास स्थानमें आरामसे रहते हैं और अनेक मनुष्य मूषक, सर्प, नकुल