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* तृतीय सर्ग*
२११ गया । उसे वहां जो प्रतिष्टित व्यापारो दिखायो दिये, उन्हें उसने प्रणाम किया। उसका सद्व्यवहार और उत्तम वस्त्र, देखकर न्यापारी अपने मनमें सोचने लगे कि यह भी कोई बड़ा व्यापारी मालूम होता है। यह सोचकर उन्होंने कहा—“हे भद्र ! इमलोग साझेमें जो माल ले रहे हैं, उसमें यदि आप चाहें तो आपका भो साझा रह सकता है।" यह सुन धनदेवने कहा-"मुझे स्वीकार है। आप लोगोंने जिस प्रकार जितना-जितना अपना साझा रखा हो, उतना मेरा भी रख लीजिये।” सबने यह बात स्वीकार कर लो। वह किरानेका सौदा था। धनदेवके भागमें भी बहुतसा किराना पड़ा । धनदेवने उसे बेचनेके लिये बाजारमें एक दुकान किरायेपर लो। कुछ ही दिनोंमें उस मालका भाव बहुत बढ़ गया। इसलिये धनदेवने मौका देख, अच्छा भाव मिलनेपर वह सब माल उसने बेच दिया। इसमें उसे यथेष्ट लाभ हुआ। इस मुनाफेसे वह अन्यान्य चीजोंका भी व्यापार करने लगा। सारा व्यापार मुनाफेकी रकमसे ही चलता था। तीनों रत्न तो अभी उसके पास ज्योंके त्यों रखे हुए थे। वह उनकी त्रिकाल पूजा करता था। कुछही दिनोंमें इस खरीद बेंचके कारण वह एक बड़ा व्यापारी गिना जाने लगा। चारों ओर उसकी कीर्ति फैल गयी और राजा एवम् प्रजा सबोंमें उसका नाम विख्यात हो गया।
धनदेवके दूसरे भाई धन मित्रने भोजन करनेके बाद दो घण्टे विश्राम किया और तब उसने नगरमें प्रवेश किया। वह घूमता घामता जौहरी बाजारमें पहुँचा। उसे देखते ही लोग