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* पार्श्वनाथ-चरित्र - अर्थात्-"जिस प्रकार निघर्षण, छेदन, ताप और ताड़नसे सोनेकी परीक्षा की जाती है, उसी तरह श्रुत, शील, तप और दया इन चारोंसे धर्मकी परीक्षा होती है।” इसके अतिरिक्त धर्म, अर्थ, काम और मोक्षयह चार पुरुषार्थ हैं। इनमेंसे प्रधान पुरुषार्थ धर्म ही है। धर्म स्वाधीन होनेपर शेष तीनों पुरुशार्थ भी शीघ्र ही स्वाधीन हो जाते हैं। किसीने कहा भी है कि--- इस संसारमें मनुष्य जन्म सारभूत है, उसमें भी तीन वर्ग सारभूत हैं, तीन वर्गमें भी धर्म सारभूत है, धर्ममें भी दान धर्म और दानमें भी विद्या दान श्रेष्ट है क्योंकि वही परमार्थ सिद्धिका मूल कारण है।” इसलिये दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलनेपर धर्ममें प्रवृति करनी चाहिये और मनुष्य जन्मको वृथा न गँवाना चाहिये । इस सम्बन्ध में तीन बणिक पुत्रोंका उदाहरण प्रसिद्ध है। वह तीनों वणिक पुत्र घरसे समान धन लेकर व्यापार करने निकले थे। इनमेंसे एकको लाभ हुआ, दूसरेने अपने मूल धनको ज्योंका त्यों सुरक्षित रखा
और तीसरेने मूल धन भी खो दिया। धर्मकी भी ऐसी ही अवस्था है। कोई मनुष्य जन्म मिलनेपर उसे बढ़ा लेता है,कोई ज्योंका त्यों रखता है और कोई जो होता है उसे भी खो बैठता है। वह तीन वणिक पुत्र किंवा व्यापारियोंकी कथा इस प्रकार है।