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* तृतीय सर्ग *
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छठा भव। किरणवेगका जीव देव भवसे च्यवन होकर लक्ष्मीवती रानीके कुक्षि रूपी सरोवरमें हंसकी भांति उत्पन्न हुआ। गर्भस्थिति पूर्ण होनेपर उसने सुमुहूर्तमें वसुधाके भूषण रूप एक पुत्रको जन्म दिया। राजाने बड़े समारोहके साथ उसका जन्मोत्सव मनाया और बारहवें दिन स्वजनोंको निमन्वित कर सबके सम्मुख उसका नाम वज्रनाभ रखा। इसके बाद बड़े लाड़-प्यारसे उसका लालन पालन होने लगा। वज्रनाभ बड़ा ही चतुर बालक था। उसने बाल्यावस्थामेंही अनेक विद्या और कलाओंका ज्ञान सम्पादन कर लिया। वह जैसा गुणी था वैसा ही रूपवान भी था। उसे देखते ही लोग प्रसन्न हो उठते थे। क्रमशः किशोरावस्था अतिक्रमण कर उसने यौवनको सीमामें पदार्पण किया। अब वह संगीत, शास्त्र और काव्य, कथा एवं स्वजन गोष्टीमें अपना समय व्यतीत करने लगा। शीघ्र ही बंगदेशके चन्द्रकान्त नामक राजाकी विजया नामक पुत्रीसे उसका व्याह भी हो गया और वह उसके साथ अपनो जीवन-यात्रा सुख-पूर्वक व्यतीत करने लगा। __ कुछ दिनोंके बाद कुमारके मामाका कुबेर नामक पुत्र अपने माता पितासे रुष्ट होकर वजनाभके पास चला आया और वहीं उसके पास रहने लगा। कुबेर नास्तिक वादी था, इसलिये एक दिन कुमारसे कहने लगा-“अरे! मुग्ध ! यह कष्ट कल्पना कैसी?