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** तृतीय सगँ *
देने) वाला कर्म ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता हैं । दर्शनावरणीय कर्मके नव भेद हैं, यथा-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, और थीणद्धि । वेदनीय कर्म दो प्रकारके हैंशातावेदनीय और अशातावेदनीय । मोहनीय कर्मके अट्ठाईस भेद हैं, यथा - सोलह कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभइन सबोंके चार चार भेद हैं यथा संज्वलन क्रोध, प्रत्याख्यानी क्रोध, अप्रत्याख्यानी क्रोध और अनंतानुबन्धी क्रोध, इसी तरह मान, माया और लोभके भी चार चार भेद होते हैं । इस प्रकार सब मिलकर १६ कषाय होते हैं । संज्वलनकी स्थिति एक पक्षकी प्रत्याखानीकी एक मासकी, अप्रत्याख्यानी की एक वर्षकी और अनंतानुबंधी की जन्मपर्यन्त होती है । इनके अतिरिक्त नव नोकषाय होते हैं, यथा- - हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रोवेद और नपुंसकवेद । इनके साथ सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय यह तीन मोहनी मिलाकर मोहनीय कर्मके कुल अठ्ठाईस भेद माने जाते हैं । नाम कर्मके दो भेद हैं- शुभ और अशुभ ( इसके उत्तर भेद भी अनेक होते हैं ) गोत्र कर्म भी दो प्रकारके होते हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । आयु-कर्मके चार भेद हैं, यथा-- देव आयु, मनुष्य आयु, तिर्यंच आयु और नरक आयु | अन्तराय कर्म पांच प्रकारका होता है, यथा- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और विर्यान्तराय ।
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