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* द्वितीय सर्ग * यह सोचते हुए ज्येष्ठ पुत्रको श्रीपुरके सिंहासनपर बैठा, मन्त्रियोंको उसे सौंप, राजाने नगरजनोंसे विदा ग्रहण की और छोटे पुत्र एवम् रानोके साथ बड़ो सज धजके साथ धारापुरकी ओर प्रस्थान किया। नगरके समीप पहुचनेपर ज्यों ही मन्त्री और नगरजनोंको राजाके आगमनका समाचार मालूम हुआ, त्योंही वे सब सम्मुख गये और बड़ी धूम-धामसे राजाको नगरमें ले आये। इसके बाद राजाने शोघ्र ही मन्त्रीकी इच्छानुसार समस्त राजभार सम्हाल लिया और पूर्ववत् प्रेमपूर्वक प्रजापालन करने लगा।
कुछ दिनोंके बीतनेपर नगरके बाहर एक उद्यानमें ज्ञानी सुनि का आगमन हुआ। उनका आगमन समाचार सुनते ही सुन्दर राजा उनके पास गया और उन्हें नमस्कार कर श्रद्धा व भक्ति पूर्वक उनका धर्मोपदेश सुना। धर्मोपदेश सुननेके बाद राजाने मुनिसे अपने पूर्व जन्मका वृत्तान्त पूछा । मुनिने उसे वह बतलाते हुए कहा-"राजन् ! पूर्व जन्ममें तू शंख नामक एक महाजन था और तेरी इस स्त्रोका नाम श्रीमती था। युवा अवस्थामें सद्गुरुके योगसे तू जिनान और दानादिक कार्यों द्वारा अनन्त पुण्य उपार्जन करता था, किन्तु वृद्धावस्थामें कुमतिके कारण तूने वे सब कार्य छोड़ दिये। और मृत्यु होनेपर इस जन्ममें तुम दोनों राजा रानो हुए। पूर्वजन्मके पुण्य बलसे प्रथम तुम्हें राज्यादिक को प्राप्ति हुई किन्तु बादको तुमने पुण्य संचय करना छोड़ दिया था, इसलिये तुम लोगोंपर विपत्ति आ पड़ो, किन्तु
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