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* द्वितीय सर्ग*
१८६ बैठा और आंख मलते हुए कहने लगा-“माता! क्षमा कीजिये, आप कब आयीं सो मैं जान न सका। आज धन न रहनेके कारण मैं निश्चिन्त हो गया था और इसीसे मुझे ऐसी सुखको नींद आयी, कि जैसी शायद इस जन्ममें भी न आयी होगी !” यह कह कर कुबेर फिर सोने लगा। देवीने कहा-“पहले जरा मेरी बात तो सुन ले ! मैं यह कहने आयी हूं, कि अब मैं यहांसे जाही नहीं सकती। अब मैं यहीं रहूंगी।" कुबेरने कहा-"कोई किसीको बांधकर नहीं रख सकता। माता! तुम्हें जहां जाना हो, खुशीसे जा सकती हो।" देवीने कहा-“हे भद्र ! मैं स्वेच्छापूर्वक कहीं भी नहीं जा सकती। सुन :
"भो लोका मम दूषणं कथमिदं संचारितं भूतले, सोत्सेका क्षणिका च निर्घखतरा लक्ष्मीरिति स्वैरिणी। नैवाहं चपला न चापि कुलटा नो वा गुणदेषिणी,
पुण्येनैव भवाम्यहं स्थिरतरा युक्त च तस्यार्जनम् ॥" अर्थात्-“हे लोगो! लक्ष्मी अभिमानिनो, क्षणिक, अत्यन्त निर्दय और कुलटा है-इस प्रकार संसारमें तुमने मुझे क्यों बदनाम कर रखा है ? मैं चपला, कुलटा या गुणद्वेषिणी नहीं। पुण्यसे ही मैं स्थिर रहती हूं इसलिये यदि तुम मुझे रोकना चाहते
हो, तो तुम्हें पुण्य उपार्जन करना चाहिये।" - हे कुबेर ! मैं तो पुण्यके ही वश हूं। तूने पुण्य किया है, इसलिये अब मैं तुझे छोड़ कर और कहीं नहीं जा सकती।" कुबेरने कहा-“देवी! मैंने तो अपने पास कुछ भी नहीं रखा है। अब आप मेरे यहां किस तरह आयेंगी?" लक्ष्मीने कहा-“हे