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* पार्श्वनाथ चरित्र *
देते
हुए केवली भगवान अन्यत्र विहार कर गये और धनसार भी परिभ्रमण करता हुआ ताम्रलिप्ति नगर पहुँचा। वहां जा व्यंतरके मन्दिर में कायोत्सर्ग करने लगा। यह देख, व्यन्तर ने कुपित होकर उसे बहुत ही भीषण उपसर्ग किये। किन्तु मेरुके समान धीर और वोर धनसार लेश भी विचलित न हुआ, उसको यह दृढ़ता देख, देवने सन्तुष्ट हो कहा - "हे महाभाग ! धन्य है तुझे और धन्य है तेरे माता-पिताको, कि गृहस्थ होनेपर भी तेरी ऐसी दृढ़मति है ! मैं तेरे साहससे प्रसन्न हुआ हूं, अतएव तू वर मांग !” धनसार तो ध्यानमग्न था, इसलिये उसने कोई उत्तर न दिया । यह देखकर देवने पुनः कहा - "हे भद्र ! यद्यपि तू इच्छा रहित है, तथापि तू मेरी बात मानकर अपने घर जा। वहां तुके पूर्ववत् धन और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी।” इतना कह देव अन्तर्धान हो गया । कुछ देर के बाद कायोत्सर्ग पूर्ण होनेपर धनसार मनमें कहने - " यद्यपि अब मुझे धनकी आवश्यकता नहीं है तथापि पूर्वके कार्पण्य मलको दूर करना चाहिये ।" यह सोचकर धनसार अपने घर लौट आया । और जब कुछ दिनोंके बाद एक दिन उसने देखा, तो जमीनमें समस्त धन ज्योंका त्यों गड़ा हुआ दिखायी दिया। उधर देशान्तर में उसने जो माल भेजा था, उसके रुपये भी धीरेधीरे आने लगे और जो लोग उसका रुपया दवा बैठे थे, उन्होंने भी उसकी पाई पाई चुका दी। इस प्रकार धनसारके पास फिर ६६ करोड़ रुपये इकट्ठे हो गये। किसीने सच हो कहा है कि शुभ भावसे किये हुए पुण्यके फल तुरत मिलते हैं ।" इसके बाद
लगा-'
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