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* द्वितीय सर्ग *
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वर्ती देवत्वकी इच्छा करता है और देव इन्द्रत्व चाहते हैं । इसलिये जैसे हो वैसे लोभको दूर करना चाहिये । लोभी मनुष्यको कभी भी सुख या सन्तोषकी प्राप्ति नहीं होती । किसीने सचही कहा है कि जिस प्रकार इन्धनले अग्नि और जलले समुद्र तृप्त नहीं होता, उसी तरह धनसे लोभोको तृप्ति नहीं होती । उसे यह भी विचार नहीं आता कि आत्मा जब समस्त ऐश्वर्यको त्याग कर परभवमें चला जाता है, तब व्यर्थ ही पापकी गठड़ी क्यों बांधी जाय ? कलुषताको उत्पन्न करनेवाली, जड़ताको बढ़ानेवाली, धर्म वृक्षको निर्मूल करनेवाली, नीति दया और क्षमा रूपो कमलिनीको मलीन करनेवाली, लोभ समुद्रको बढ़ानेवाली, मर्यादाके तटको तोड गिरानेवाली और शुभ भावना रूपी हंसोंको खदेड़ देनेवाली परिग्रह नदीमें जब बाढ़ आती है, तब ऐसा कौन दुःख है जिसको मनुष्यको प्राप्ति न होती हो ! कहने का तात्पर्य यह है कि परिग्रहका परिमाण बढ़ने पर लोभ दशा बढ़ जाती है और उससे मनुष्यपर नाना प्रकारके संकट आ पढ़ते हैं, इसलिये सर्वथा इसका त्याग करना चाहिये । इस सम्बन्धमें धनसारकी कथा मनन करने योग्य है । वह कथा इस प्रकार है :
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