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* द्वितीय सग *
वह स्वयं खाता खर्चता था, न घरवालोंको ही खाने-खर्चने देता था। इसी कारणसे जब कभी वह बाहर जाता, तो घरके आदमी खुशी मनाते और पेट भर खाते। किसीने सच ही कहा है कि “दान" शब्दके “दा” और “न” इन दो अक्षरोंमेंसे पहला अक्षर "दा" उदार पुरुषोंने ले लिया । कृपण पुरुषोंको मानो इससे बड़ी ईर्ष्या हुई, इसीलिये उन्होंने दृढ़ता पूर्वक "न" अक्षरको पकड़ रखा। धनसारको ठीक यही बात लागू होती थी। वह "न" छोड़कर खर्च करनेके सम्बन्धमें "हां" कभी कहतो ही न था। उसकी इस कृपणताके कारण लोगोंने उसका नाम महाकृपण रखा था । वह सदा सड़ा गला और मद्देसे महा अन्न अपने खानेके काममें लाता था। इस प्रकार कृपणताकी बदौलत वह अपना धन दिन प्रति दिन बढ़ाता जाता था और उसीको देख देखकर प्रसन्न होता था।
एक दिन धनसार अपना खजाना देखनेके लिये जमीन खोदने लगा, किन्तु खाजानेके स्थानमें कोयला निकलते देख उसे बहुत ही चिन्ता और सन्देह हुआ। शीघ्रही उसने और भी स्थान खोदा तो उसे कहीं कीड़े मकोड़े, कहीं सांप और कहीं बिच्छू प्रभृति जोवजन्तु दिखायी दिये, किन्तु खजानेका वहां कहीं पता भी न था। यह देखकर धनसार छाती पीटतो हुआ जमीनपर गिर पड़ा और दुखित हो विलाप करने लगा। इसी समय किसीने आकर यह खबर सुनायी, कि उसकी जो नौकायें अनेक प्रकारका माल लेकर विदेश जा रही थीं वे अचानक तूफान आनेसे समुद्र में