________________
१८४
* पार्श्वनाथ-चरित्र - एक काष्ट खंड पड़ गया और उसीके सहारे वह समुद्रको लहरोंमें बहता हुआ किनारे लगा। अब वह दीनता पूर्वक इधर उधर भटकने लगा। रात दिन अपने मनमें वह यही सोचता“अहो! मेरा धन कहां गया ? परिवार कहां गया ? जिस तरह मदारकी रुईको हवा उड़ा ले जाती है, उसी तरह देव मुझे कहां ले आया ? अहो! मुझे धिक्कार है कि मैंने इतना धन होते हुए भी न तो उसे उपभोग ही किया, न उसे धर्म कार्यमें ही लगाया न कोई परोपकार ही किया।" __इस तरह सोचता हुआ वह इधर उधर भटक रहा था। इतनेमें एक दिन उसने एक देदीप्यमान मुनीश्वरको देखा । उनकी महिमासे देवताओंने आकर वहां स्वर्ण कमलको रचना को थी
और उसीपर मुनीश्वर विराज रहे थे। धनसार भी वहां जाकर, उन्हें वन्दना कर उनके पास बैठ गया। मुनीश्वरका धर्मोपदेश सुनने के बाद अन्तमें अवसर मिलनेपर उसने केवली भगवन्तसे पूछा--“हे भगवन् ! मैं कृपण और निर्धन क्यों हुआ ?” केवलीने कहा-“हे भद्र ! सुन, धातकी खंडके भरतक्षत्रमें एक धनी रहता था। उसके दो पुत्र थे। धनीकी मृत्यु होनेपर उसका ज्येष्ट पुत्र घरका नेता हुआ। वह गंभीर, सरल, सदाचारी, दानी और . श्रद्धावान पुरुष था। उसका छोटा भाई कृपण और लोभी था। बड़ा भाई जब गरीबोंको दान देता, तो छोटे भाईको ईर्ष्या उत्पन्न होती। वह बडे भाईको बलपूर्वक इससे विरक्त करनेकी चेष्टा करता,किन्तु बड़ा भाई किसी तरह भी उसकी बात न मानता