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* द्वितीय सर्ग *
उस
१२५ कारके यहां उसका दामाद आया, इसलिये उसने चन्द्राको जल भरनेके लिये बुलाया । सर्ग उस समय जंगल गया था, इसलिये चन्द्राने उसके लिये रोटियां और मट्ठा एक छींकेपर रख दिया और दरवाजेको जंजीर चढ़ाकर वह साहूकारके यहां जल भरने चलो गयो । दोपहर को यथा समय सर्ग अपने घर आया । समय उसे बहुत ही भूख प्यास लगी थी; किन्तु घर में माताको न देख, वह मारे भूखके छटपटाने लगा । उधर चन्द्रा जल भरतेभरते थक गयी, किन्तु साहूकारके सब आदमी अपने-अपने काममें व्यस्त थे, इसलिये किसीने उसे एक दानेको भी न पूछा । निदान, वह भी खाली हाथ घर लौट आयी । किसीने सच कहा है कि दूसरेको सेवामें जो पराधीनता आ जाती है, वह बिना मृत्युकी मृत्यु, बिना अग्नि प्रजलन, बिना जंजीरका बन्धन, बिना पंककी मलीनता और बिना नरककी तीव्र वेदनाके समान बल्कि यों कहिये कि इनसे भी बढ़ कर है ।
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सर्ग क्षुधाके कारण पहलेहीसे व्याकुल हो रहा था । उससे किसी तरह रहा न जाता था। एक-एक पल वर्षके समान बीत रहा था । माताको देखते हो वह क्रोधसे उन्मत्त हो उठा। उसने तड़पकर कहा - " पापिनो ! क्या साहूकारके यहां तुझे फांसी दे दी गयी थी जो तू अबतक वहां बैठी रही ?" पुत्रके यह क्रोध युक्त वचन सुनकर चन्द्राको भी क्रोध आ गया । उसने भी उसी तरह उत्तर दिया- “क्या तेरे हाथ न थे जो छींके परसे रोटियां भी उतारकर खाते न बनी !” इस प्रकार कठोर वचनोंका: