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* द्वितीय सर्ग *
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उसपर कौन विपत्ति आ पड़ी है ? कौन उसे मारने को तैयार हुआ है ?” पर्वतको माताने यह सुनकर राजाको नारदके वादविवाद और पर्वतके जिह्वाछेदनका हाल कह सुनाया । अन्तमें उसने कहा - "दोनोंने इस सम्बन्धमें आपको प्रमाणभूत माना है, इसलिये पर्वतको बचानेके लिये आप अजका अर्थ बकरा ही बतलायें । सज्जन तो प्राण देकर भी दूसरोंका उपकार करते हैं, आपको तो केवल वचन ही बोलना है ।" राजाने कहा - " माता ! आपका कहना ठीक है । किन्तु मैं बिलकुल झूठ नहीं बोलता 1 सत्यवादी पुरुष प्राण जानेपर भी असत्य नहीं बोलते । गुरुवचन को भी लोप करना पाप भीरु मनुष्यके लिये सहज काम नहीं है । इसके अतिरिक्त शास्त्रोंका कथन है कि झूठी गवाही देनेवाला नरकगामी होता है । बतलाइये, ऐसी अवस्थामें मैं कैसे बोल सकता हूं ?" वसुकी यह बातें सुन पर्वतकी माताने कहा“राजन् ! मैंने आपसे कभी किसी वस्तुकी याचना नहीं की । अपने जीवनमें आज हो मैं आपसे यह याचना करने आयी हूं, जैसे हो वैसे मेरो यह प्रार्थना स्वीकार करनी ही होगी ।"
झूठ
गुरु पत्रीका इस प्रकार अनुचित दबाव पड़नेपर वसुने झूठ बोलना स्वीकार कर लिया । वचन मिलनेपर क्षीरकदम्बककी पत्नी आनन्द मनाती अपने घर गयो । थोड़ी देर के बाद नारद और पर्वत दोनोंने राज सभामें प्रवेश किया । वसुने दोनोंको बड़े सत्कारसे ऊं'चे आसनोंपर बैठाकर कुशल समाचार और आगमनका कारण पूछा। उत्तरमें दोनोंने अपना अपना वक्तव्य