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* पार्श्वनाथ चरित्र दिखायी देता है। घरको दधिो बन गयी तो बनमें लागी आग! अब क्या करू?" इस प्रकार विचार कर राजाने उस यक्षिणोसे कहा-“हे देवि! मैंने पर नारोसे दूर रहनेकी प्रतिक्षा की है, इसलिये, मुझे दुःख है कि मैं तेरी इच्छा पूर्ण नहीं कर सकता। अब्रह्मके सेवनका फल भी बहुत बुरा होता है। शास्त्रकारोंका कथन है कि:
"पंढत्वमिंद्रियच्छेदं, वोक्याब्रह्मफलं सुधीः ।
भवेत्स्वदार संतुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत ॥ अर्थात्-"पंढत्व और इन्द्रियच्छेद-अब्रह्म सेवनके इन दोनों फलोंको देखकर सुज्ञ पुरुषको परदारासे विरक्त होकर स्वदारामें हो सन्तोष मानना चाहिये।” हे देवि! इसीलिये मैंने पर स्त्रोसे दूर रहनेको प्रतिज्ञा की है। तुझे मेरो इस प्रतिक्षाका विचार कर मुझसे अनुचित प्रस्ताव न करना चाहिये। इसके अतिरिक्त तू देवता और मैं पामर मनुष्य-मेरा और तेरा सम्बन्ध भी कैसे हो सकता है ?"
राजाने यद्यपि यह बातें बहुत ही नम्रता पूर्वक कहीं, किन्तु यक्षिणीपर इनका कोई प्रभाव न पड़ा। क्रोधके कारण उसकी आंखोंसे चिनगारियां निकलने लगो। उसने उसी समय नागिनका रूप धारण कर राजाको डस लिया और उसे अचेतनावस्थामें ही उठाकर किसो द्वीपके एक कुएं में डाल दिया। किन्तु राजाका आयुष्य अभी पूर्ण न हुआ था, अतएव उसके जीवनका अन्त न आ सका। कुएं में थोड़ा सा जल था इसलिये उसमें पड़े रहने के