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* द्वितीय सर्ग *
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१६७ लिये मुझे अब इस देशका हा त्याग करना चाहिये ।" यह सोच कर दूसरे ही दिन राजा वहांसे चल दिया । चलते समय सब लोगोंने वहां रहनेके लिये बहुत अनुरोध किया और इस तरह अचानक प्रस्थान करनेका कारण भी पूछा, किन्तु राजाने सबको यथोचित उत्तर दे, उनसे विदा ग्रहण की। देशान्तर में भ्रमण करते करते वह बहुत दूर निकल गया । अन्तमें एक स्थानपर उसे श्री आदिनाथका मन्दिर दिखायी दिया। वहां जा, श्रीॠषम देवका स्तवन कर वह कुछ देरके लिये गवाक्षमें बैठ गया । इसी समय वहां एक यक्षिणी आ पहुंची। जिनेश्वरकी वन्दना कर लौटते समय उसकी दृष्टि राजापर पड़ गयी । कामदेवके समान राजाका रूप देखकर वह उसपर मोहित हो गयी। उसने राजाको सम्बोधित कर कहा - "हे सुन्दर पुरुष । तुझे देखते ही मेरी शुद्धि बुद्धि लोप हो गयी है । तू मेरे विमानमें बैठ कर मेरे साथ चल । हम लोग स्वतन्त्र विहार कर अपना जीवन सार्थक करेंगे । यदि तू मेरी बात मान लेगा तो मैं तुझे इच्छावर देकर निहाल कर दूंगी । यदि तू मेरा प्रस्ताव अस्वीकार करेगा तो तुझे खूब सताऊंगी और तुझे मरणावधि कष्ट दूंगी।" यक्षिणीकी यह बात सुन कर राजा मनमें कहने लगा- “ अहो ! कर्मकी केसी विचित्र गति हैं। मैं राजपाट छोड़कर इतनी दूर चला आया, तब भी वह मेरा पिंड नहीं छोड़ता । जिस विपत्ति से बचनेके लिये मैं उस सज्जनके यहांके भोजन वस्त्रको ठुकरा कर यहां चला आया, उसी विपत्तिका जाल यहां भी बिछा हुआ
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