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** द्वितीय सर्ग *
१६५ उन दोनों बच्चोंको भी मुझसे छीन लिया, जिन्हें देखकर इस शोक सन्तप्त हृदयको कुछ शान्ति मिलती थी। अब मैं ही इस संसारमें जोकर क्या करू ? मैं भी क्यों न अपना प्राण किसी तरह विसर्जन कर दूं कि एक बारही इन सब विपत्तियोंका अन्त आ जाय !” किन्तु दूसरे ही क्षण राजाका विवेक जागृत हुआ । वह अपने मनमें कहने लगा- “अहो, मैं यह क्या सोच रहा हूँ ? आत्म हत्याका विचार भी मनमें लाना पाप है । इससे न केवल दुर्गति ही होती है, बल्कि जिन दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिये आत्म हत्या की जाती है, वही दुःख फिर परलोकमें भोगने पड़ते हैं। जब ऐसो अवस्था है, तो वहांकी अपेक्षा यहीं उन दुःखोंको भोग लेना अच्छा है। कहा भी है कि :
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कस्य वक्तव्यता मास्ति, सापायं को न जीवति । व्यसनं केन न प्राप्तं, कस्य सौख्यं निरन्तरम् ॥
अर्थात् – “किसमें कहने योग्य बात नहीं होती ! कष्ट सहित कौन नहीं जोता ? व्यसनको कौन नहीं प्राप्त होता ? और निरन्तर सुख किसे मिलता है ? किसीको नहीं ।" जिस प्रकार मनुष्योंको अनायास दुःखोंकी प्राप्ति होती है, उसी तरह उन्हें अनायास सुख भी मिलते हैं, इसलिये कहीं भो दीनता न दिखानी चाहिये 1 दीनको सम्पत्ति मिलने पर भी जिस प्रकार उसकी हीनता नहीं छूटती, उसी तरह सिर कटने पर भी धोर पुरुष विचलित नहीं होते ।”
इस तरह राजाने धैर्य धारण कर जैसे हो वैसे 'दिन काटना