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* द्वितीय सर्ग
. १६३ देते हुए कहा-“हे वत्स! रुदन न करो! यह सब हमारे पूर्व कर्मका ही दोष है। जो कुछ सिरपर आ पड़ा है उसे चुपचाप सहन करनेके सिवा हम लोग और कर हो क्या सकते हैं। यदि दैव प्रतिकूल न होता तो क्या इस जरासे अपराधके कारण श्रीसार इस तरह हम लोगोंको निकाल बाहर करता? कर्म प्रतिकूल होनेपर जो न हो वही थोड़ा है।
"प्रतिकूले विधौ किंवा, सुधापि हि विषायते। ' रज्जुः सपी भवेदाशु, बिलं पातालतां भजेत् ॥ तमायते प्रकाशोपि, गोष्पदं सागरायते ।
सत्यं कूटायते मित्र, शत्रुत्वेन प्रवर्तते ॥ अर्थात्-“दैव प्रतिकूल होनेपर सुधा विषकी तरह, रस्सी सर्पके समान, बिल पातालके समान, प्रकाश अन्धकारके समान, गोष्पद सागरके समान, सत्य असत्यके समान और मित्र शत्रुके समान हो जाते हैं।”
इस प्रकार पुत्रोंको सान्त्वना दे, उन्हें अपने साथ ले, राजाने उदास चित्तसे उस नगरको अन्तिम नमस्कार कर दूसरे नगरकी राह लो। मार्गमें वे लोग कहीं कन्दमूल और फलाहार करते
और कहीं भिक्षा-भोजन । कहीं कहीं भिक्षाके लिये निन्दा और भर्त्सना सुननी पड़ती और भूखे पेट हो रास्ता तय करना पढ़ता
था। बहुत दिनोंतक इस तरह चलते चलते यह लोग बहुत दूर निकल गये । अन्तमें एक दिन उन्हें एक दुस्तर नदी मिली । नदीको देखते ही राजा चिन्तामें पड़ गया कि अब क्या किया जाय और