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* द्वितीय सर्ग * कारण, और अपने शीलके प्रतापले कुछ हो समयमें उसका विष दूर हो गया। शुद्धि आने पर राजाने देखा तो अपनेको कुण्में पड़ा हुआ पाया। इधर उधर देखनेपर उसे उस कूपके अन्दर एक दरवाजा दिखायी दिया। शोघहो उसे खोलकर राजाने उसमें प्रवेश किया। दरवाजेसे एक सीधा रास्ता सामनेकी ओर चला गया था। उस रास्तसे कुछ दूरतक जानेपर एक मैदान मिला। उस मैदानमें एक दिव्य भवन देखकर उसने उसमें प्रवेश किया। वहां उस समय नाटक हो रहा था और एक देव सिंहासनपर बैठा हुआ उसे देख रहा था। राजाने उसके पास जाकर बहुत ही नम्रता पूर्वक उसे प्रणाम किया। उसे देखकर देवने पूछा-“हे भद्र ! तू यहां किस तरह आ पहुँचा ?" राजाने तुरत उसे सारा हाल कह सुनाया। सुनकर देवको बड़ा सन्तोष हुआ । उसने कहा- "अहो ! धन्य है तुझे और धन्य है तेरी प्रतिज्ञाको ! संकटमें भी इस प्रकार प्रतिक्षाको निभाना और विपत्तिपर विपत्ति को बुलाना बड़े कलेजेका ही काम है। तेरी सुशीलता देखकर मुझे बहुत ही आनन्द हुआ है। तुझे जो इच्छा हो, वह तू मांग सकता है।
राजाने कहा-“हे स्वामिन् ! इस विपत्तिमें आपसे क्या वर मांगूं? यदि वास्तवमें आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो दयाकर यह बतलाइये कि मैं अपने स्त्री-पुत्रादि स्वजनोंको अब इस जन्ममें देख सकूँगा या नहीं ?" देवने कुछ विचारकर कहा-“शीलवान मनुष्यके लिये संसारमें कुछ भी असंभव नहीं है। तुझे न केवल