________________
* द्वितोय सर्ग *
बांधे खड़ी रहती थी। रानी मदनवल्लभा इस समय भी उस बनजारेके साथ थी और उसका काम काजकर दासीकी भांति काल बिताया करती थी। जिस समय दोनों कुमार यह सब बातें कर रहे थे, उस समय वह भी चिन्ताके कारण जाग रही थी। कुमारोंकी बातें सुन, स्नेह और शोकसे विह्वल होकर वह बाहर निकल आयी और दोनों कुमारोंको गले लगा लगाकर खूब रोने लगी। बड़ा ही करुणा पूर्ण हृदय था। ऐसा कि देखकर पत्थर भी पसीज उठे। किन्तु बनजारेको कुछ भी दया न आयी। उसने रानीको पकड़ कर जबर्दस्ती कुमारोंसे अलग कर दिया और सवेरा होते ही कुमारोंको भी राजाके सम्मुख उपस्थित कर शिकायत की, कि कोतवालने ऐसे सिपाही देनेकी कृपाकी है, जो पहरा देना तो दूर रहा, उलटे मेरी ही आदमियोंको फुसलाते है । राजाने उसी क्षण पूछा कि यह दोनों द्वारपाल कौन हैं ?" कोतवालने हाथ जोड़कर कहा-“राजन् ! मैं नहीं जानता कि यह कौन हैं किन्तु कुछ दिनसे यह दोनों मेरे यहां नौकरी करते थे और देखने में भले मालूम होते थे, इसलिये मैंने इन्हें सोमदेवके यहां भेज दिया था।
राजाने अब दोनों कुमारोंको ध्यानपूर्वक देखा। देखते ही वह अपने कलेजेके दोनों टुकड़ोंको पहचान गया। उसका शरीर रोमाञ्चित हो उठा और नेत्रोंमें आंसू भर आये। किन्तु उसने गंभीरता पूर्वक अपनी इस भावभंगीकों छिपा कर, कोतवाल और बनजारेको वहांसे विदा किया। इसके बाद उसने उन दोनों