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* द्वितीय सर्ग * गुण और दानसे गृहस्थ शुद्ध होता है उसी प्रकार सत्यसे वचन शुद्ध होता है। सत्यके प्रभावसे देवता भी प्रसन्न होते हैं। पांच प्रकारके सत्यसे द्रौपदीको आम वृक्षने सत्वर फल दिये थे। जिस प्रकार सुवर्ण और रत्नादिसे बाह्य शोभा बढ़ती है उसी प्रकार सत्यसे आन्तरिक शोशा बढ़ती है। कहा भी है कि झूठी साक्षी देनेवाला, दूसरोंका घात करनेवाला, दूसरोंके अपवाद बोलनेवाला मृषावादी और निःसार बोलनेवाला-निःसन्देह नरक जाता है। हँसी-दिल्लगीमें भी असत्य बोलनेसे दुःखकी ही प्राप्ति होती है। देखिये, यदि हंसीमें विष खा लिया जाय, तो क्या उससे मृत्यु न होगी? इसी तरह जो कर्म हलोमें भी गले बँध जाता है, वह फिर किसी तरह छुड़ाये नहीं छूटता। यह सिद्धान्तका कथन है। अतएव चतुर पुरुषको मृषावाद रूपी कोचड़से बचना चाहिये। मृषावादके सम्बन्धमें एक संन्यासीका उदाहरण भी विशेष प्रसिद्ध है। वह उदाहरण इस प्रकार है :___ सुदर्शनपुरमें एक नापित रहता था। उसने किसी योगोको सेवा कर उससे एक विद्या प्राप्त की। उस विद्याके प्रभावसे वह अपने धोये हुए वस्त्रोंको आकाशमें बिना किसी आधारके योंही रख सकता था। एक बार किसो संन्यासीने उससे वह विद्या सिखा देनेको प्रार्थना की । नापितने उसे सुपात्र समझ कर वह विद्या सिखा दी। अब वह संन्यासी देश देशान्तरमें भ्रमण कर इस विद्याका चमत्कार दिखाने लगा। वह जहां जाता वहीं अपने वस्त्र धोकर आकाशमें निराधार रखकर सुखाता । इससे लोगोंको