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* द्वितीय सर्ग * चोरी करने के लिये बाहर निकला। इधर उधर घूमते हुए उसने किसी घरकी खिड़कोसे उसमें देखा, तो क्या देखता है कि एक दोकड़ेको भूलके कारण दत्त नामक एक महाजन अपने पुत्रसे कलह कर रहा है, यह देख कर चोरने अपने मनमें विचार किया, कि एक दोकड़ेके लिये, मध्यरात्रिके समय, निद्राको छोड़ कर जो अपने पुत्रसे इस प्रकार कलह कर रहा है, उसका यदि धन हरण करूंगा, तो अवश्य उसका हृदय विदीर्ण हो जायगा और वह मर जायगा, इसलिये इसका धन न चुरा कर कहीं अन्यत्र चलना चाहिये। यह सोचकर वह कामसेना नामक एक वेश्याके यहां गया। वहां उसने देखा, कि कामसेना रतिसे भी अधिक सुन्दर है, किन्तु धन लोलुपताके कारण एक कोढ़ीसे नाना प्रकार का हासविलास कर रही है। यह देखकर उसने स्थिर किया, कि धनके कारण जो स्त्री कोढीको भी गले लगा रही है, उसका धन हरण करना भी ठीक नहीं। यहांसे चलकर वह राजमन्दिरमें गया और वहां एकाग्रता पूर्वक सेंध लगाने लगा। सेंध लगाकर जब वह महल में पहुँचा, तो उसने देखा कि राजा रानीके साथ घोर निद्रामें पड़ा हुआ है। यह देखकर उसकी प्रसन्नताका पारावार न रहा। वह अपने मनमें कहने लगा-“अहो! मेरा भाग्य कैसा अच्छा है कि मैं यहां आ पहुँचा और अबतक किसी को इस बातको खबर भी नहीं हुई। समूचा महल रत्नदीपके प्रकाशसे प्रकाशित हो रहा था, इसलिये महावलने उसके प्रकाशमें बहुतसा धन और रत्नादि एकत्र कर लिया, किन्तु ज्यों