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* द्वितीय सर्ग*
१५१ तूने मेरी आज्ञानतामें मेरी प्रियतमाका हरण किया है, किन्तु इससे तू फूल मत जाना। महाबलकी रक्षाका भार अब मैं अपने सिरपर लेता हूं। अब यदि महाबलपर तेरा चक्र चल जाय, तो मैं तुझे सञ्चा सुभट समझंगा।” यह कहकर राजाने महाबलको बहुत सा धन दिया और अपने पुत्रकी तरह उसे खिलाने पिलाने लगा। उसने महाबलसे भी कह दिया कि अब तू मृत्युका भय छोड़ दे और निश्चिन्त होकर संसारमें विचरण कर।" राजाके इस ववनसे महाबलको बहुत कुछ शान्ति मिली और वह आनन्द पूर्वक अपने दिन निर्गमन करने लगा, फिर भी जब कभी उस वट वृक्षपर उसकी दृष्टि पड़ जाती, तब उसे नागकुमारकी बात याद आ जाती और मृत्यु भयसे उसका कलेजा कांप उठता । ___ इस भयको हृदयसे दूर करनेके लिये एक बार उसने राजासे भी प्रार्थना की कि-“हे राजन् ! मुझे कहीं ऐसे स्थानमें भेज दीजिये, जो यहांसे बहु दूर हो और जहांसे मैं इस वट वृक्षको न देख सकू।" राजाने कहा-“हे वत्स! तू अब व्यर्थ ही डरता है। जबतक त मेरी छत्रछायामें बैठा है, तबतक देवकी क्या मजाल, कि तेरा बाल भी बांका कर ले। तू चैनकी वंशी बजा और निश्चिन्त होकर मौज कर !” राजाको यह बात सुनकर महाबल को कुछ सान्त्वना मिली। धीरे-धीरे वह पूर्ण रूपसे निश्चिन्त हो गया और दैवको तुच्छ समझने लगा।
परन्तु देव इस प्रकार किसीको अछूता छोड़ दे तो उसकी सत्ता कोई स्वीकार ही क्यों करे ? एक दिन महाबल गलेमें सोने