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* द्वितीय सर्ग. प्रकारके उपचारों द्वारा उसकी शुश्रूषा की, किन्तु कोई लाभ न हुआ। देवने इस बार उसपर इतनी क्रूरता पूर्वक आक्रमण किया था, कि उसके प्रबल पंजेसे कोई भी छुड़ा न सका।
जब यह समाचार राजाने सुना, तो उसे बड़ा ही दुःख हुआ। वह अत्यन्त विलाप करके कहने लगा-“हे वत्स! तुझे यह क्या हो गया ? मैंने भी कैसो भूल की, जो उस वटको पहलेसे ही निर्मल न कर डाला! मैंने उसकी डालियां ही छटा दी होती तो कैसा अच्छा होता । अरे ! मैंने तुझे किसो दूसरे नगर क्यों न भेज दिया ? मेरा इतना सैन्य और मैं तेरा रक्षक होनेपर भी तू अनाथकी तरह बेमौत मारा गया ? मेरा यह सब ऐश्वर्य, मेरा यह रुतबा और मेरे यह नौकर चाकर-कोई भी इस वक्त तेरे काम न आये।" . इस घटनासे राजाके मनमें एक बारकी विरक्तिसी आ गयी। वह अपने मनमें कहने लगा--"मैंने व्यर्थ ही अभिमानमें आकर महाबलकी रक्षाका भार अपने सिरपर लिया। जराको जर्जरीभूत करनेमें और मृत्युपर विजय प्राप्त करनेमें, जब किसीको सफलता नहीं मिलतो, तो मुझे ही कैसे मिल सकती है ? इसलिये हे जीव ! मिथ्याभिमान मत कर! मैं कर्ता, मैं धर्ता, मैं धनी, मैं गुनीयह सब अहंकार मिथ्या ही है। हे दैव! तुझे भी क्या कहूँ ? तुझे केवल मेरी प्रियतमाका ही हरणकर सन्तोष न हुआ तूने मेरा मान भी हरण कर लिया। वास्तवमे कौन विधाता ? कौन देव और कौन यम ? जो कुछ है सो कर्म ही है। जीव अपने