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* द्वितीय सर्ग * थी। इस सदाचारके कारण राजाकी सुकीर्ति दिगदिगान्तरमें व्याप्त हो रही थी। राजा न्यायपूर्वक प्रजा-पालन करता हुआ सानन्द जीवन व्यतीत करता था।
एक दिन मध्यरात्रिके समय कुल देवोने उपस्थित होकर राजासे खिन्नता पूर्वक कहा-“हे राजन् ! तेरे ऊपर एक घोर विपत्ति आनेवाली है। उसका आना अनिवार्य हैं । इस समय तेरी युवावस्था है। कुछ दिनके बाद वृद्धावस्था आ जायेगी। यदि तेरी इच्छा हो तो मैं इस विपत्तिको इस समय रोककर ऐसा कर सकती हूँ कि वह इसी समय न आकर कुछ दिनोंके बाद आये, किन्तु उसे पूर्ण रूपसे रोकना सम्भव नहीं है। तू उस विपत्तिका सामना यौवनमें करना चाहता है या बुढ़ापेमें ?” राजाने हाथ जोड़कर कहा-“हे देवि! यदि उस विपत्तिका उच्छेद करना आपको सामर्थ्य के बाहर है, तो उसे वृद्धावस्था तक रोक रखनेको अपेक्षा इसी समय आ जाने दीजिये ! जीव जो शुभाशुभ कर्म करता है, वे उसे भोग करने ही पड़ते हैं। कहा भी है कि जिस तरह हजार गायोंमेंसे बछड़ा अपनी माताको खोज लेता है, उसो तरह पूर्वकृत कर्म कर्ताका अनुसरण करते हैं। लाखों वर्ष बीत जानेपा भी किये हुए कर्मोका क्षय नहीं होता। जीवको अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म भोगने ही पड़ते हैं। इसलिये जो होनी हो उसे होने दीजिये। वृद्धावस्थामें शारीरिक शक्ति क्षय हो जानेपर, कष्टोंका सामना करना बहुत ही कठिक हो पड़ेगा । इस समय यदि विपत्तिका पहाड़ भी सिरपर टूट पड़े, तो उसे सहन