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* पार्श्वनाथ चरित्र करनेके लिये मैं सहर्ष तैयार हूँ।" यह सुनकर कुल देवी उदास हो वहांसे चली गयीं और राजाने धैर्यपूर्वक विपत्तिको स्वीकार कर लिया। कहा है कि :
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाकपटुता युधि विक्रमः। यसि चाभिरूचिव्यसनं श्रुतौ, प्रकृति सिद्भमिदं हि महात्मनाम्॥
अर्थात्-“विपत्तिमें धैर्य, अभ्युदयमें क्षमा, सभामें वाक्चातुर्य, युद्धमें पराक्रम, यशमें अभिरुचि और शास्त्रमें व्यसनयह सभी महात्माओंको स्वभावसे ही सिद्ध होते हैं।"
देवीके चले जानेके बाद राजाने सोचा कि यहां बैठकर विपत्ति की प्रतीक्षा करनेकी अपेक्षा उसे कुछ आगे बढ़कर भेटना अधिक अच्छा है। वीर पुरुष आपत्ति, मृत्यु और शत्रुके आगमनकी प्रतीक्षा न कर उसे सम्मुख ही जाकर मिलते हैं। इसलिये अच्छा हो, यदि मैं अपने दोनों पुत्र और रानीको लेकर कहीं अन्यत्र चला जाऊ।" यह सोचकर राजाने मन्त्रीको सारा हाल कह सुनाया और कहा-"राज-सञ्चालनका समस्त भार मैं आपके सिर छोड़ता हूँ। आप सब तरहसे योग्य हैं। प्रजाको सन्तानकी तरह पालना । किसीको किसी प्रकारका कष्ट न होने देना । मेरी चिन्ता न करना। यदि जीवित रहा, तो फिर आ मिलूंगा। अन्यथा जो उचित समझना सो करना।" यह कह राज्यादिकको तृणकी भांति त्याग कर राजा अपने परिवारके साथ वहांसे चल पड़ा। राहखर्चके लिये उसने एक मुद्रिका अपने साथ ले ली थी, किन्तु दुर्भाग्यवश मार्गमें किसीने उसे भी चुरा लिया।