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* द्वितीय सर्ग *
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तब उसके आनन्दका पारावार न रहा । वह अपने मनमें कहने लगा- 'अहो ! तपके प्रभावसे मनुष्य जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है। यदि ऐसा न होता तो मुझे बैठे बैठाये अनायास इन रत्नोंकी प्राप्ति कैसे होती ?” किन्तु इन रत्नोंकी प्राप्तिका आनन्द महाबल अधिक समय तक उपभोग न कर सका । वह अभी अपने मनमें उपरोक्त प्रकारके विचार कर ही रहा था, कि राजाके सिपाहियोंने उसे आ घेरा। वे कहने लगे - "हे पापिष्ट ! हे दुष्ट ! तापसके वेशसे समूचे श्रीपुरको लूटकर अन्तमें तूने राजाके यहां भी चोरी की ! देख, अब तुझे इस चोरीका क्या मज़ा मिलता है !" यह कहते हुए सिपाहियोंने महाबलकी खूब मरम्मत की । इसके बाद उसे गिरफ्तार कर राजाके पास ले चले । अब महाबलको अपनी मृत्यु समोप दिखायी देने लगी । वह मनमें कहने लगा, कि नागकुमारने जो बात कही थी, मालूम होता है कि अब वह सत्य प्रमाणित होगी । मृत्यु अब मूर्तिमान होकर उसकी आंखोंके सामने नाचने लगी । उसे देखकर वह वारम्वार यह श्लोक कहने लगा :
"रक्ष्यते नैव भूपालैर्न देव र्न च दानवैः । नीयते वट शाखायां, कर्मणाऽसो महाबलः ॥
".
अर्थात्- “ अपने कर्म महाबलको वटशाखाकी ओर लिये जा रहे हैं। अब राजा, देव या दानव कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते ।”
महाबलको वारम्बार यह श्लोक बोलते सुन राजाके सिपाही