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* द्वितीय सर्ग *
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करते थे । शास्त्राभ्यास करनेसे ही पुरुष सर्व समीहितको प्राप्त करते हैं। क्योंकि विद्या ही पुरुषका रूप है, विद्या ही पुरुषका गुप्त धन है, विद्यासे ही भोग, यश और सुख की प्राप्ति होती है। विद्या गुरुको भी गुरु है, विदेशमें विद्याहो बन्धुके समान काम देती है, विद्या ही परम दैवत है, विद्या ही राजाओंमें पूजी जाती हैं—धन नहीं, इसलिये विद्याहोन पुरुषको पशु ही समझना चाहिये ।
उपाध्याय अपने तीनों शिष्योंको बड़े प्रेमसे पढ़ाते थे और रात दिन उनका शुभचिन्तन किया करते थे । एक दिन रात्रिका समय था । तीनों शिष्य पढ़ते-पढ़ते सो गये; किन्तु उपाध्याय अभी तक जाग रहे थे । इसी समय आकाश मार्गसे कहीं जाते. हुए दो मुनि उधर से आ निकले। इनमेंसे एक मुनिने उपाध्यायके तानों शिष्योंको देखकर दूसरे मुनिसे कहा- “ इन तीनमेंसे एक शिष्य मोक्षगामी है और दो नरकगामी हैं ।" मुनिकी यह बात क्षारकदम्बकने भी सुन ली । सुनकर उनका मुख मण्डल कुछ मलीन हो गया । वे अपने मनमें कहने लगे- वास्तवमें यह बड़े दुःखकी बात है । मुझे धिक्कार है कि मैं अध्यापक होनेपर भी मेरे शिष्य नरक में जायें; किन्तु यह बात किसो जैसे तैसे मनुष्यने नहीं कही । यह बात तो अकारण ही किसी ज्ञानी मुनिके मुखसे निकल पड़ी है, अतएव यह मिथ्या भी कैसे हो सकती है ? खैर, कुछ भी हो, मुझे एक बार परीक्षा कर यह तो जान लेना चाहिये, कि कौन-कौन नरक जायँगे और किसे मोक्षकी प्राप्ति होगी ?