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* द्वितीय सर्ग *
१२६ ___ अर्थात्-"सब सुखोंका प्रधान हेतु होनेके कारण धर्म ही इस संसारमें सार वस्तु है ; किन्तु उसका उत्पत्ति स्थान मनुष्य हैं, इसलिये मनुष्यत्वहो सार वस्तु है।" हे भव्य जनो ! मोहनिद्रा का त्याग करो। ज्ञान जागृतिसे जागृत हो, प्राण-घातादिका त्याग करो, कठोर वचन न बोलो। कठोर वचन बोलनेसे दूसरे जन्ममें देयिणी और अरुणदेवकी तरह दुःखकी प्राप्ति होती है।" मुनिराजकी यह बात सुन राजा आदिने पूछा-“देयिणी और अरुणदेवने पूर्व जन्ममें क्या किया था ?” यह सुनकर मुनिराजने उनके पूर्वजन्मका वृत्तान्त कह सुनाया ।सुनकर सबकोसंवेग प्राप्त हुआ। देयिणी और अरुण देवको भी जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। अतएव उन दोनोंने एक दूसरेको क्षमा कर दिया। इसके बाद अनशन और धर्म ध्यानके कारण दोनोंको स्वर्गकी प्रप्ति हुई। देयिणी और अरुणदेवका वृत्तान्त सुनकर राजाको भी वैराग्य आ गया। वह कहने लगा-“अल्पमात्र कठोर वचन बोलनेसे जब ऐसी अवस्था होती है, तब मेरी क्या गति होगी? अहो! इस संसारको धिक्कार है।" यह कहकर राजा और जसादित्यने चारित्र अङ्गीकार किया। अनन्तर जिस चोरने देयिणीके हाथ काटकर कड़े चुराये थे, उस चोरने भी वहाँ आकर अपना अपराध स्वीकार कर चारित्र ग्रहण कर लिया। बहुत दिनोंतक उग्र तप करनेपर इन तीनोंको स्वर्गकी प्रप्ति हुई।
कठोर वचनका यह फल जानकर, स्वप्नमें भी उनका प्रयोग न करना चाहिये, क्योंकि वचन और कायासे की हुई हिंसा तो