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* द्वितीय सर्ग *
१२७ अरुणदेव नगरके बाहर एक उपवनके पुराने चैत्यमें सो रहा। थका होनेके कारण उसे शीघही वहां निद्रा आ गयी । ___ इतनेमें उसके पूर्व जन्मकी माता देयिणी उसी उपवनमें क्रीड़ा करनेके लिये आ पहुँची। यहां उसके पूर्व संचित कर्म प्रकट रूपसे उदय हुए। फलतः उसी उपवनमें छिपे हुए किसी चोरने उसके दोनों हाथ काट डाले और उसके दो सोनेके कड़े लेकर वह वहांसे चम्पत हुआ। यह देख कर बनपालने शोर मचाया। फलतः चारों ओरसे राजाके सिपाही दौड़ पडे । चोरने जब देखा कि अब भाग कर जान बचाना कठिन है, तब वह उस पुराने चैत्यमें घुस गया और सोते हुए अरुणदेवके पास दोनों कड़े व छूरो रखकर आप उसी चैत्यके शिखरमें छिप रहा। इतनेमें अरुणदेवकी आंख खुली। कड़े और छूरीको अपने पास देखकर वह उनके सम्बन्धमें विचार करने लगा। इसी समय वहां सिपाही आ पहुंचे। उन्हें देखकर अरुणदेवको क्षोभ हुआ। उन्होंने ललकार कर कहा-"अरे ! अब तू कहां जा सकता है ?" इसके बाद उन्होंने छूरी और कड़ों समेत अरुणदेवको गिरफ्तार कर राजाके सम्मुख उपस्थित किया। राजाने अपने अनुचरोंके मुंहसे कड़ेकी चोरीका हाल सुनकर, उसी समय अरुणदेवको शूलीपर चढ़ानेकी आज्ञा दे दी। शीघ्रहो राज-कर्मचारी उसे शूलीके पास ले आये।
इसी समय नगरसे अन्न लेकर महेश्वर बगीचेमें पहुचा किन्तु वहां अरुणदेवको न देखकर उसने उसके सम्बन्धमें उद्यान रक्ष