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* द्वितीय सर्ग* मार डालता; किन्तु उसने सोचा कि इसे जो जानसे मार डालना ठीक नहीं। यदि यह जीवित रहकर मेरी सेवा करना स्वीकार कर ले, तो इसे यों ही छोड़ दिया जाय ; किन्तु कुमार जिस समय यह विचार कर रहा था, उसो समय उसकी असावधानीसे लाभ उठाकर, कापालिकने उसके दोनों पैर पकड़कर आकाशकी ओर उछाल दिया। भीम इस समय यदि जमीन पर आ पड़ता तो उसकी हड़ियां भी ढूंढे न मिलती ; किन्तु सौभाग्य वश किसी यक्षिणीने बीच होमें उसे अपने हाथोंपर उठा लिया। अतः भीम न तो जमीन पर ही गिरा न उसे किसी प्रकारकी चोटही आयी। अनन्तर यक्षिणी उसे अपने मन्दिरमें उठा ले गयी। वहां उसे एक रत्नजड़ित मनोहर सिंहासनपर बैठाकर उसने कहा-"हे सुभग ! यह विन्ध्याचल पर्वत है और इसपर यह मेरा भवन है। मैं कमला नामक यक्षिणी हूँ और क्रीड़ाके लिये यहां रहती हूँ। आज मैं सपरिवार अष्टापद पर्वतपर गयो थी । वहांसे लौटते समय रास्तेमें मैंने तुम्हें कापालिकसे युद्ध करते हुए देखा। जब तुम्हें उसने ऊपर उछाल दिया तब मैंने ही तुम्हें अपने हाथोंपर गोंचकर बचाया । हे कुमार ! इस समय तुम मेरे अतिथि हो। ईश्वर कृपासे तुम्हें अपार यौवन और रूपकी प्राप्ति हुई है। तुम्हारा रूप और यौवन देखकर मेरे हृदयमें कामने बड़ी उथलपुथल मचा दी है। हे सुभग! आओ, मेरे गलेसे लगकर मेरे जले हुए हृदयको शीतल कर दो। अपने इस कार्यमें बाधा देनेवाला यहां कोई नहीं है।"