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* द्वितीय सगं*
१०६ समय वहां एक स्त्रीने प्रकट होकर कहा - "हे राजन् ! चिन्ता न कीजिये । मैं तुम्हारी कुल देवी हूं । तुम्हारे पुत्रको एक पाखण्डी धोखा देकर श्मशान में ले गया था। वहां उसने उसका शिर लेनेकी चेष्टा की थी, किन्तु सौभाग्यवश वह बच गया है। इस समय वह सकुशल है और शीघ्र ही बड़ी सम्पत्तिके साथ तुम्हें आ मिलेगा । यह कहते हुए वह स्त्री अन्तर्धान हो गयी; किन्तु उसकी बातें सुन मुझसे न रहा गया। मैं उसी समय आपकी खोज में श्मशान की ओर चल पड़ा। वहां आप तो न मिले, किन्तु यह पापी कापालिक उपस्थित था। मैं इसके हाथमें फंस गया । और यह मुझे यहां उठा लाया । इसने मुझे बहुत तंग किया । यदि यथासमय आप न आ पहुंचते तो यह मुझे मारही डालता ।
मतिसागर की यह बातें सुन भीमकुमारको कापालिकपर बड़ा ही क्रोध हुआ । उसने क्रोधपूर्ण नेत्रोंसे कापालिककी ओर देखा । भीमको कुटिल भ्रकुटियोंको देखकर कापालिक कांप उठा। उसने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा, “हे सात्विक शिरोमणि ! आपने भगवती कालिकाको जिस दया धर्मका उपदेश दिया है । उसे मैं भी स्वीकार करता हूं । इस धर्म-दानके कारण मैं आपको अपना गुरु समझँगा और सदा सेवककी तरह रहूँगा । कृपया मुझपर दया कर मेरा यह अपधराध क्षमा करें ।" कापालिकके दोन वचन सुन, भोमकुमारने क्षमा कर दिया । इसी समय सूर्यादय हुआ । भीमकुमार और मतिसागर विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिये और कहां जाना चाहिये । किन्तु उन्हें अधिक