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* द्वितीय सर्ग *
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मुनिराजने कहा - "राजन् ! यदि तुझे पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनने की इच्छा हुई है तो सुन। किसी समय प्रतिष्ठानपुर में देवदत्त और सोमदत्त नामक दो भाई रहते थे। पूर्वजन्मके वैर विरोधके कारण उन दोनोंमें अत्यन्त ईर्षा द्वेष रहता था। बड़े भाई देवदत्तने सन्तान प्राप्तिकी इच्छासे अनेक विवाह किये, किन्तु किसी स्त्रीके सन्तान न हुई और वह धीरे धीरे वृद्ध हो गया । एक दिन वह कहीं कामसे जा रहा था, रास्तेमें उसने देखा कि दावानलमें एक सर्प जला जा रहा है। उसे उस पर दया आ गयी अतः शीघ्र ही उसने अग्निले बाहर निकाल कर उसका प्राण बचाया, इसके बाद एक दिन वह अपने घरमें बैठा हुआ भोजन कर रहा था, इसी समय वहां एक ऐसे मुनि आ पहुँचे, जिन्होंने एक मास तक उपवास किया था । देवदत्तने उन्हें बड़े आदरके साथ बैठाया और उनका यथोचित आतिथ्य कर उन्हें अच्छी तरह अहार दान दिया । हे राजन ! यह देवदत्त और कोई नहीं, तू ही था । तूने पूर्वजन्ममें मुनिराजको आहार दान दिया था, इसलिये इस जन्ममें तुझे राज्यकी प्राप्ति हुई है । पूर्वजन्ममें तूने सर्पको कष्टसे बचाया था, इसलिये इस जन्ममें तेरे भी सब कष्ट दूर हुए। तेरा पूर्वजन्मका भाई सोमदत्त इस जन्ममें कापलिक हुआ। पूर्वजन्मके अभ्यासके कारण इस जन्ममें भी वह तुझ पर द्वेष रखता है । इसीलिये उसने तुझे अनेक प्रकारके कष्ट देनेकी चेष्टा की, किन्तु सर्पको बचानेके कारण तुझे जो पुण्य हुआ था, उस पुण्य बलसे तेरे सब कष्ट दूर हो गये । यही तेरे पूर्वजन्मकी कथा है । है भीम