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* पार्श्वनाथ-चरित्र * आनन्द हुआ। ऐसे पुत्रको प्राप्त करनेके कारण वे अपनेको धन्य समझने लगे। शीघ्र ही उन्होंने अनेक राजकुमारियोंके साथ भीमका व्याह कर दिया और कुछ दिनोंके बाद भीमको राजसिंहासन पर बैठाकर उन्होंने गुरु महाराजके निकट दीक्षा ग्रहण करली । भीमराजा जैन धर्मका बड़ा प्रभावक हुआ और क्रमशः तीनों खण्डका स्वामी हुआ।
दोगंदुक देवकी भांति भीमको सांसारिक सुख उपभोग करते हुए जब तीस हजार वर्ष हुए, तब एक दिन वहांके सहस्राम्रवनमें क्षमासागर नामक एक ज्ञानी मुनिका आगमन हुआ। वनपाल द्वारा यह समाचार सुनते ही राजा सपरिवार उन्हें वन्दन करने गया। वहां गुरु और अन्यान्य साधुओंको वन्दनकर भीम प्रभृतिने जब समुचित आसन ग्रहण किया, तब गुरु महाराजने धर्मोपदेश देते हुए कहा-“हे भव्य जीवो! धर्मका अवसर प्राप्त होने पर विवेकी पुरुषको आडम्बरके लिये विलम्बन न करना चाहिये। बाहुबलिने इसी प्रकार रात्रि बिता दी थी, फलतः उसे आदिनाथ स्वामीके दर्शन न हो सके थे। इसके अतिरिक्त मनुष्य मात्रको चाहिये कि विषय वासनाओंके प्रलोभनमें न पड़े, धर्मका साधन करें। मनुष्य जन्म मिलनेपर भी जो प्राणिधर्म साधना नहीं करता, वह मानो समुद्रमें डूबते समय नौकाको छोड़कर पत्थर पकड़ता है।" इस प्रकार धर्मोपदेश सुन, राजाको वैराग्य हो आया। उसने मुनिराजसे पूछा-“हे भगवन् ! मैंने पूर्वजन्ममें कौनसा पुण्य किया था, जिसके कारण मुझे यह ऐश्वर्य-सुख प्राप्त हुआ है ?