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* प्रथम सर्ग *
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बड़े भाईकी यह बातें सुन छोटे भाईने नम्रता पूर्वक कहा :“मेरो धारणा आपके कथनसे बिलकुल विपरीत है। जिस प्रकार धनोपार्जन के लिये युवावस्था उपयुक्त है, उसी प्रकार धर्मानुष्ठानके लिये भी युवावस्था ही उपयुक्त है । वृद्धावस्था में कोई भी कार्य अच्छा नहीं हो सकता, इसलिये मेरी समझ में, यह दोनों कार्य जिसप्रकार मैं कहता हूं, उसी प्रकार साथ-साथ चलने दीजिये । यद्यपि धनोपर्जनकी अपेक्षा धर्मानुष्ठान अधिक उपयोगी है, इसलिये धनोपार्जनको छोड़ कर भी धर्मानुष्ठान करना उचित है; किन्तु यह हम जैसे साधारण अवस्थावाले मनुष्योंके लिये असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हैं । इसीलिये मैं दोनों कामोंको साथ-साथ करता हूं । धर्मानुष्ठानकी, जैसी आप चाहते हैं, वैसी उपेक्षा नहीं की जा सकती । वह वृद्धावस्था के लिये रख छोड़ने योग्य कार्य नहीं । देखिये शास्त्रकार क्या कहते हैं :
यावत्स्वस्थमिदं शरोरमरुजं यावज्जरा दूरतो, यावच्चेन्द्रिय शक्ति प्रहिता यावत्क्षयो नायुषः । श्रात्मश्र यषि तावदेवविदुषा कार्यः प्रयतो महान्, संदीप्ते भवने तु कूप खमनं प्रत्युद्यमः कीदृशः ?
अर्थात् - " जब तक यह शरीर निरोग और स्वस्थ रहे, जबतक बुढ़ापा न आये, जबतक इन्द्रियोंमें शक्ति हो और जबतक आयुष्य क्षीण न होने पाये, तब तक में समझदार लोगोंको आत्मकल्याणका उपाय कर लेना चाहिये । घरमें आग लगने पर कुंआ खोदनेकी तरह अन्तमें फिर क्या हो सकता है ?”
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