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* पाश्र्वनाथ चरित्र *
मिलनेयर उत्तम पुरुषोंको आत्मकल्याण अवश्य साधन करना चाहिये ।”
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इस प्रकार धर्मोपदेश श्रवण कर राजाने भक्ति पूर्वक गुरुदेवको वन्दना किया। साथ ही उसने नम्रता पूर्वक प्रार्थना की, कि हे प्रभो ! मैं यति धर्म ग्रहण करनेमें असमर्थ हूँ । इसलिये कृपया मुझे गृहस्थ धर्मका उपदेश दीजिये, जिससे मेरा कल्याण हो ।
राजाकी यह बात सुन मुनीन्द्रने उसे बारह व्रतोंसे युक्त गृहस्थधर्मकी शिक्षा दी । राजाने उसे सम्यक् भावसे स्वीकार किया। मुनिराजका उपदेश इतना सुन्दर और हृदयग्राही था, कि भीमकुमारको मुनिके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई । भीमकुमारका यह भाव मुनिराज तुरतही ताड़ गये। उन्होंने उसे योग्य पात्र समझ कर कहा -वत्स ! मैं तुझे भी दो एक बातें ऐसी बतलाता हूँ, जिससे तेरा कल्याण होगा। ध्यान देकर सुन।
धर्मस्य दया जननो, जनकः किलकुशलकर्म विनियोगः श्रद्धाति वल्लभेयं, सुखानि निखिलान्यपत्यानि ॥
अर्थात् - " दया धर्मकी माता है, कुशल कर्मका विनियोग उसका पिता है, श्रद्धा उसकी वल्लभा है और समस्त सुख उसके अपत्य - संतान हैं । इसलिये हे कुमार ! सदा दयाको धारण करना । निरपराध प्राणियोंकी हिंसा न करना और मृगया प्रभृतिका तो स्वप्नमें भी अभ्यास न करना ।
मुनिराजका यह उपदेश सुन भीमकुमारने निरपराध पशुओंकी हत्या न करनेका नियम लिया । साथ ही उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति