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________________ * पाश्र्वनाथ चरित्र * मिलनेयर उत्तम पुरुषोंको आत्मकल्याण अवश्य साधन करना चाहिये ।” ३२ इस प्रकार धर्मोपदेश श्रवण कर राजाने भक्ति पूर्वक गुरुदेवको वन्दना किया। साथ ही उसने नम्रता पूर्वक प्रार्थना की, कि हे प्रभो ! मैं यति धर्म ग्रहण करनेमें असमर्थ हूँ । इसलिये कृपया मुझे गृहस्थ धर्मका उपदेश दीजिये, जिससे मेरा कल्याण हो । राजाकी यह बात सुन मुनीन्द्रने उसे बारह व्रतोंसे युक्त गृहस्थधर्मकी शिक्षा दी । राजाने उसे सम्यक् भावसे स्वीकार किया। मुनिराजका उपदेश इतना सुन्दर और हृदयग्राही था, कि भीमकुमारको मुनिके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई । भीमकुमारका यह भाव मुनिराज तुरतही ताड़ गये। उन्होंने उसे योग्य पात्र समझ कर कहा -वत्स ! मैं तुझे भी दो एक बातें ऐसी बतलाता हूँ, जिससे तेरा कल्याण होगा। ध्यान देकर सुन। धर्मस्य दया जननो, जनकः किलकुशलकर्म विनियोगः श्रद्धाति वल्लभेयं, सुखानि निखिलान्यपत्यानि ॥ अर्थात् - " दया धर्मकी माता है, कुशल कर्मका विनियोग उसका पिता है, श्रद्धा उसकी वल्लभा है और समस्त सुख उसके अपत्य - संतान हैं । इसलिये हे कुमार ! सदा दयाको धारण करना । निरपराध प्राणियोंकी हिंसा न करना और मृगया प्रभृतिका तो स्वप्नमें भी अभ्यास न करना । मुनिराजका यह उपदेश सुन भीमकुमारने निरपराध पशुओंकी हत्या न करनेका नियम लिया । साथ ही उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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