________________
* प्रथम सर्ग *
६१
बुद्धिसागर मन्त्रीके मतिसागर नामक पुत्रसे उसकी मित्रता हो गयी । इन दोनोंमें बड़ा ही प्रेम रहने लगा । खाते-पीते उठतेबैठते सब समय एक साथही रहते । यदि कभी क्षण भरके लिये भी वे एक दूसरेसे पृथक हो जाते तो उनका जी तड़फड़ाने लगता । दोनोंने यथा समय शस्त्र और शास्त्र प्रभृति विद्या- कलाओं में भी पारदर्शिता प्राप्त कर ली ।
एक दिन राजा अपने पुत्र के साथ राज सभा में बैठे हुए थे । उसी समय बनपालकने आकर सूचना दी कि चम्पक उद्यानमें देवचन्द्र नामक मुनीन्द्र पधारे हैं। यह शुभ समाचार सुन राजाको बड़ा आनन्द हुआ और उसने बनपालको मुकुट छोड़कर अपने शरीरके समस्त भूषण उतारकर उपहार दे दिये। इसके बाद कुमार, मन्त्री और सभाजनोंके साथ राजा मुनीन्द्रकी बन्दना करने गया । उत्तरासंग धारण कर अंजलि पूर्वक गुरु महाराजकी वन्दना कर राजा यथास्थान बैठ गया अनन्तर मुनीन्द्रने धर्मलाभ प्रदान कर इस प्रकार धर्म देशना आरम्भ की।
“हे भव्य जनो ! किसी सरोवर में एक कछुआ रहता था । उल सरोवर के जलमें काई पड़ी हुई थी । रात्रिके समय जब वायुका झोंका लगा और काई फट गयी, तब उस कछुएको चन्द्रके दर्शन हो गये । कुछ देर में जब पुनः काई सिमट कर बराबर हो गयी, तब उसके लिये चन्द्रदर्शन दुर्लभ हो गये। ठीक यही अवस्था मनुष्य जन्मकी है । अनुत्तर विमान वासी देवताओंको भी बड़े यत्नसे इसकी प्राप्ति होती है । इसलिये मनुष्य जन्म