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• *द्वितीय सर्ग पानी भर जानेके कारण लोग मकानकी छतों और पेड़ोंपर चढ़ गये । इस समय धनी और गरीब सबकी एक ही अवस्था थी। सबपर समान दुःख आ पड़ाथा । सब एक ही दुःखसे दुःखित थे।
राजा, मन्त्री और नैमित्तिक भी इस आपत्तिसे अछूते न बचे थे। इन तीनोंने राजमहलके सातवे खण्डः पर आश्रय ग्रहण किया था, किन्तु जब पानी बढ़ते-बढ़ते वहां तक जा पहुंचा, तब राजा और मन्त्री दोनोंका हृदय कांप उठा। प्रजाका करुण कन्दन सुन राजाकी आंखोंमें भी आंसू आ गये। वह अपने मनमें कहने लगा-हो न हो, यह मेरे किसी पापका ही उदय हुआ है। यदि मैंने कोई धर्म-कार्य किया होता, तो आज यह दुरवस्था न होती। किन्तु अफसोस, सारो जिंदगी बीत गयी। अब मैं कर ही क्या सकता हूं। किसीने सच ही कहा है कि मनुष्यका जीवन परिमित अधिकसे अधिक लौ वर्षका है। इसमेंसे आधा तो रात्रिके ही रूपमें बेकार चला जाता है। शेष आधेका आधा बचपन और बुढ़ापेमें बीतता है और बाकी जो रहता है वह व्याधि वियोग और दुःखमें पूरा हो जाता है। अहो! जलतरंगकी तरह इस चपल जीवन में प्राणियोंको सुखको प्राप्ति ही कब होती है। मैंने थूहड़के पीछे कल्पवृक्ष खो दिया, कांचके पीछे चिन्तामणि खो दिया। इस असार संसारके मोहमें लीन होकर मैंने धर्मको भुला दिया। अब मैं क्या करू और कहां जाऊँ?
दुःखके कारण राजाका गला भर आया। उसे अब चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार दिखायी देने लगा। उसे इस प्रकार मरना