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* प्रथम सर्गजिसने उनका नाम न सुना हो। फिरणवेग भी उनका नाम बहुत दिनोंसे सुन रहे थे। अतएव उनका आगमन-समाचार सुनते ही वे उनके दर्शन करनेके लिये लालायित हो उठे। उन्होंने उसी समय उद्यानमें पहुचकर विजयभद्र और समस्त मुनियोंको सविनय वन्दना किया। देखते-ही-देखते यह समाचार समूचे नगरमें फैल गया। फलतः चारों ओरसे लोगोंके दल आचार्यकी वन्दना करनेके लिये उद्यानमें पहुंचने लगे। कुछ ही समयमें वह स्थान लोगोंसे भर गया। लोग आवार्यके केवल दर्शनोंसे हो सन्तोषलाभ न कर सके। वे उनका उपदेश भी श्रवण करना चाहते थे। सभी लोग इसके लिये आचार्यसे वियन-अनुनय कर रहे थे। राजा किरणवेगने भी नम्रता पूर्वक कुछ वचनामृत पान करानेकी उनसे प्रार्थना की। विजयभद्र भला कब इन्कार करनेवाले थे! लोगोंको धर्मदेशना देकर उन्हें सन्मार्गपर लाना ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। अतः उन्होंने उसी समय धर्मोपदेश देनी आरम्भ किया। यथा :
प्रासाद्यते भवांभोधौ, भ्रमद्भिर्यत्कथंचन ।
मुग्धस्तत्प्राप्य मानुष्यं, हा ! रत्नमिव हार्यते ॥ अर्थात्-“भव-सागरमें भ्रमण करते-करते, न जाने कितने दिनोंके बाद मनुष्यका जन्म मिलता है, किन्तु जिस प्रकार भ्रममें पड़ा मनुष्य रत्नको खो देता है, उसी प्रकार प्राणी इस मनुष्य जन्मको व्यर्थ गंवा देते हैं। इस संसारमें मनुष्य जन्म मिलनेपर जो प्राणी धर्म-साधना न कर केवल विषय-भोगमें ही तन्मय बने