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*पार्श्वनाथ-चरित्र.
चला गया था फिर भी उसको धारणा थी कि उस वृक्षके आसपास कहीं-न-कहीं उससे अवश्य भेंट होगी।
इधर धनदत्तने बड़ी बेचैनीके साथ वह रात उस गाँवमें काटी। एक तो वह घर पहुँचनेके लिये उत्सुक हो रहा था, दूसरे उसको जन्म भरको कमाई, जिसके लिये कहना चाहिये कि वह उसीको देखकर जीता था, एकान्त जंगलमें गड़ी पड़ी थी। प्रातः काल होते ही वह उस गाँवसे चल पड़ा और सूर्य निकलते निकलते उस पोपलके पास आ पहुँचा। किन्तु यह क्या ? वह नली कहाँ गयीं ? उसे कौन खोद ले गया ? धनदत्तने जिस स्थानपर नली गाड़ी थी, उस स्थानपर खाली गढ़ा देखकर उसके प्राण ही उड़ गये। जिसने एक कौड़ीके लिये कोसोंकी दौड़ लगायी थी, वह इस वज्रपातको बरदास्त ही कैसे कर सकता था। वह मारे दुःखके पागल हो गया और माथा पटक-पटक कर विलाप करने गला।
इसी समय देवदत्त वहां आ पहुँचा,। उसने तुरतही धनदत्तको पहचान लिया। उसको इस दुरवस्थाका कारण भो समझनेमें उसे देरी न लगी। किन्तु धनदत्तके होश ठिकाने न थे। वह अपनी भ्रमित अवस्थाके कारण देवदत्तको पहचान भी न सका। देवदत्तने उससे कुछ पूछना चाहा, किन्तु वह पागलकी तरह उसको ओर ताककर पुनः रोने लगा। देवदत्तने उसकी यह अवस्था देखकर तुरन्त उसके सामने वह भली रख दी। नलीको देखते ही मानों अन्धेको आँखें मिल गयीं, धनदत्त होशमें आकर