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प्रथम सर्ग
योंके साथ उस जलपूर्ण सरोवरमें विहार करनेके बाद वह बाहर निकलकर सरोवरके तटपर आया। वहाँ खड़े-खड़े उसने जो चारों
ओर नज़र फेरी तो मुसाफिरोंको टिके देखा। देखते ही उसका चेहरा यमराजकी तरह हो गया, आँखें तमतमा आयीं, कान खड़े हो गये और वह सँड़ हिलाकर, दिशाओंको अपने चिंग्याइसे कपाते हुए सबको डरवाने लगा। यह देख सभी पुरुष, स्त्री, वाहन आदि इधर-उधर भागने लगे। उस समय ज्ञानवान् अरविन्द मुनि अपने ज्ञान द्वारा उस हाथोका बोध-काल जानकर वहीं कायोत्सर्ग करके टिके रहे। अपने जाती स्वभावके कारण वह हाथी क्रोधके साथ दूरहीसे मुनिकी ओर दौड़ा। परन्तु पास आतेही वह मुनिके तप-स्तेजके प्रभावसे दुम दबाये नये चेलेकी तरह चुपचाप खड़ा हो रहा । अबके उसके उपकारके लिये कायोत्सर्ग किये हुए मुनि शान्त और गम्भीर वाणीमें उस हाथको प्रतिबोध देने लगे,-“हे गजेन्द्र ! तुम अपने मरुभूतिवाले जन्मको क्यों नहीं याद करते ? क्या तुम मुझ अरविन्द राजाको नहीं पहचानते ? मरुभूतिवाले भवमें अङ्गोकार किये हुए अर्हत्-धर्मको क्यों भूले जा रहे हो ? हे गजराज! वह सब बातें याद करो और श्वापद-जातिके मोहसे पैदा हुए इस अज्ञानको छोड़ दो।" मुनिके ये अमृतके समान वचन सुनकर शुभ अध्यवसायके द्वारा उस गजराजको तुरत हो जाति-स्मरण-ज्ञान हो आया । अनन्तर उसने हर्षके आँसू आँखोंमें भरे हुए, दूरहीसे शरीरको झुकाये हुए अपनो सूडसे मुनिराजके दोनों चरण छुए और संवेग प्राप्त उस गजराजने सिर