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*प्रथम सर्ग:
तीसरा भव।
इस प्रकार विचार करते हुए शम-सुधासे सिक्त होकर धर्म ध्यान करते हुए वह हाथी मृत्युको प्राप्त होकर आठवें सहस्रार नामक देवलोकमें सतरह सागरोपमकी आयुवाला देव हुआ। वहाँ एक ही अन्तर्मुहूर्त में वह दो देवदूष्य वस्त्रोंके बीचमें उत्पन्न हो उठ खड़ा हुआ। उस समय वहां मौजूद रहनेवाले सेवक-देव और देवाङ्गनाएँ शय्या पर बैठे हुए, तरुण पुरुषाकार, सर्वाङ्ग विभूषित, रत्न-कुण्डल, मुकुट और उज्वल हार आदिसे अलङ्कत शरीरवाले और तुरत उत्पन्न होनेवाले उस देवको देखकर इस प्रकार कहने लगे,"हे नाथ! तुम्हारी सदा जय हो। तुम्हें सदा आनन्द प्राप्त हो। हमें आज्ञा देकर अनुगहीत करें। हम अनाथोंके नाथ हो जाओ, हम तो आपके दास हैं। यह सारी लक्ष्मी आपके ही अधीन है। आप जिस तरह उचित समझे, उस तरह इसका उपयोग कीजिये।" इसके बाद वह देव स्नान-मङ्गलकर,अपना कल्प (आचार) ग्रन्थ पढ़ कर, शाश्वत चैत्यमें विराजमान प्रतिमाकी पूजा कर स्तुति करते हुए उसके सभा स्थानमें आया। वहां देवों और देवियोंके मङ्गल गानके साथ संगीतामृतमें लीन हो, वह दिव्य भोग भोगने लगा। कहा है कि, देवलोकमें देवताओंको जो सुख प्राप्त होता है, उसको मनुष्य यदि सौ वर्षतक सौ जिवाओं द्वारा कहा करे, तो भी वह पूरा वर्णन