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* पार्श्वनाथ-चरित्र. गया। इसी समय अपना अन्तिम समय निकट जान कर उस हाथीने पूर्व भवके अभ्यासानुसार 'भवचरिमं पञ्चक्खामि' इस प्रकार चतुर्विध आहारका 'पञ्च क्खाण' किया और सम्यकृत्वका स्मरण किया-"अरिहन्त मेरे देव, सुसाधु मेरे आजीवन गुरु और जिन प्रणीत धर्म जो सम्यक्त्व है उसे मैं अङ्गीकार करता हूँ।” साथही वह अठारहों पाप-स्थानोंको स्मरण करने लगा,-"प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, पर-परिवाद, माया-मृषावाद और मिथ्यात्वशल्यइन अठरहों पाप-स्थानोंका मैं त्याग करता हूँ।" इसी प्रकार वह चिन्तवन करने लगा, तथा
___ "खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमन्तु मे
मित्ति मे सव्व भूएस, वेरं मज्झ न केणइ।" अर्थात्-“मैं सब जीवोंको खमाता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। सब प्राणियों पर मेरा मैत्रीभाव बना है। किसीके साथ मेरा वैभाव नहीं हो। पुन:-"मैं सब प्राणियोंको क्षमा करता हूं। वे भी मुझे क्षमा करें। सब जीवोंके साथ मेरी मैत्री हो
और मुझे श्री वीतराग देवका शरण प्राप्त हो।" ___ इसी प्रकारकी भावनाएँ करते-करते वह गजराज एक मनसे परमेष्टि-नमस्कार मन्त्रका स्मरण करने लगा। उसने विचार किया,-"व्याधि अथवा मृत्युके मामलेमें दूसरा तो निमित्त मात्र होता है, परन्तु प्राणी स्वयं ही अपने कर्मानुसार शुभशुभ फल प्राप्त करता है।"