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• प्रथम सर्ग.
रहा, बल्कि इस समय तो हानि ही हो रही है । इसीतरह कुविकल्पके कारण पूजा करते हुए भी वह अपना पुण्य-धन गवां बैठा और उसने व्यन्तर जातिके देवको आयु बाँधी। इधर जिनपूजाका अनुमोदन करनेसे भद्रक तो सौधर्मलोकमें जाकर देवता हुआ और कुविकल्पके कारण नन्दक व्यन्तर-देव हुआ। इसलिये कुविकल्प करते हुए जिन-पूजा कभी नहीं करनी चाहिये-सदा शुभ भावसे ही जिनार्चन करना उचित है । अब कुविकल्पसे किये हुए दानका फल भी सुन लो। ____ “उज्जयिनीमें धन्य नामका एक बनिया व्यापारके लिये दूकान खोले बैठा था। इसी समय कोई अणगार मुनि मास-क्षमणके पारणाके लिये भिक्षा लेनेके लिये आये। क्योंकि मुनिको प्रथम पोरसीमें सज्झाय, दूसरीमें ध्यान, तीसरीमें गोचरी और चौथीमें पुनः सज्झाय करनेको कहा गया है। धन्य वणिक्ने भिक्षाके लिये घूमते हुए मुनिको देख उन्हें बड़े आदर-भावसे बुलाकर उनके पात्रमें घृतकी अखण्डधारा छोड़ी। इससे उसने उच्चगति उपार्जन की और उसके बढ़ते हुए पुण्यका विघात न हो, इसलिये मुनिने भी उसे नहीं रोका। इतने में उस सेठके मनमें यह बात आयी कि इस अकेले मुनिको इतना घी किस लिये चाहिये, जो यह चुपचाप लिये चला जा रहा है और मना नहीं करता ?" उस समय उसने देवलोककी आयु बाँधी थी, इसीसे मुनिने कहा,-"रे मूर्ख ! उच्चगतिसे नीचे गिरनेकी चेष्टा न कर।" उसने कहा, “ऐसी अनुचित बात मत कीजिये।" मुनिने कहा,