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•प्रथम सर्ग. गुरु महाराजने उन्हें सूरिपदसे अलंकृतकर आचार्य बना दिया। इसके बाद अनेक मुनियोंके परिवार सहित वे वसुधातलपर विहार करने लगे। __इधर ललिताङ्ग कुमार भी राज्यको सम्पत्ति पाकर सबके लिये हर्षदायक बन गये। वे अपनी प्रजाको पुत्रवत् पालने लगे। कहते हैं कि शठका दमन, अशठका पालन और आश्रितोंका भरण-पोषण करना ही राजाका मुख्य कर्त्तव्य है। साथ ही दुष्टोको दण्ड देना, स्वजनोंका सत्कार करना, न्यायसे राज्य. कोषकी वृद्धि करना, शत्रु ओंसे देशकी रक्षा करना और पक्षपात नहीं करना, ये राजाओंके पांच धर्म हैं। राजा ललिताङ्ग धर्मात्मा और पुण्यात्मा थे, इस लिये उनकी प्रजा भी धर्म-पुण्य करने लगी। कहा भी है कि यदि राजा धर्मात्मा होता है, तो प्रजा भी धर्मात्मा होती है और राजा पापी होता है, तो प्रजा भी पापी होती है और यदि राजा औसत दर्जेका होता है, तो प्रजा भी वैसीही होती है। प्रजा राजाका ही अनुकरण करती है। 'यथा राजा तथा प्रजा' यह नीति-वचन यथार्थ है। ललिताङ्ग कुमार माताकी तरह प्रजाकी रक्षा करते, पिताकी तरह प्रजाको धन देते और गुरुकी तरह उसे धर्ममें लगाते थे। इसी तरहसे सुखके साथ उनका समय कटता रहा।
एक दिन उद्यानके रखवालेने आकर हाथ-जोड़े प्रसन्न मुखसे सभामें बैठे हुए राजासे कहा, "हे स्वामी! मैं आपको वधाई देने आया हूँ। राजर्षि नर-वाहन भव्य जीवोंको प्रतिबोध देते