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* प्रथम सर्ग *
मांगो, वह मैं तुम्हें दे सकता हूं । अदृश्य-करण, कुब्ज-रूपकरण, परकाय प्रवेश आदि बहुतसी विद्याएं संसारमें हैं, पर सबमें आकाश - गामिनी विद्या बड़ी दुर्लभ है, इसलिये तुम उसके योग्य हो, तुम यही विद्या सीख लो। इससे मुझे बड़ा आनन्द होगा ।” गन्धार श्रावकने कहा, “मैं यह विद्या लेकर क्या करूँगा ? मेरी तो धर्म-विद्या बनी रहे, यही बहुत है ।”
विद्याधरने फिर कहा, “मैं जानता हूँ कि तुम बड़े संतोषी हो; पर मैं तुम्हें अपना साधर्मिक समझकर तुम्हें यह विद्या सिखला कर कृतार्थ होना चाहता हूं।” यह सुन गन्धारने स्वीकार कर लिया । विद्याधरने उसे विधि सहित मन्त्र दिया और दोनों अपने-अपने स्थानपर चले गये । अनन्तर परोपकारी गन्धारका समय सुखसे व्यतीत होने लगा ।
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कुछ दिन बीतने पर गन्धारने सोचा, कि कहीं जंगली फूलकी तरह मुझे मिला हुआ मन्त्र व्यर्थ ही न हो जाये । यही सोचकर उसने स्कंदिल नामके अपने एक मित्रको विधि सहित वह मन्त्र बतला दिया । स्कन्दिल उस विद्याकी साधनाके लिये सब सामप्रियोंके साथ एक दिन रातको श्मशान में पहुँचा । वहाँ बलिदान आदि करके उसने उस वृक्षपर एक सींका लटकाकर ठीक अग्निकुण्डके ऊपर उसीमें जाकर बैठ रहा । अनन्तर एक सौ आठबार अक्षत मन्त्र जाप करनेके बाद उसने ज्योंही सीकेकी एक डोरी छुरीसे काटी, त्योंही नीचेकी आग देखकर उसके मनमें शङ्का हुई कि कहीं सीकेकी चारों रस्सियां काट देनेपर भी मन्त्र- सिद्धि न