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*प्रथम सर्ग.
भलीभांति समझकर सम्यक्त्वको अविचलित रीतिसे हृदयमें धारण करना चाहिये।
सुदेव में देव-बुद्धि, सुगुरुमें गुरु-बुद्धि और सुधर्ममें धर्म-बुद्धि रखनेको हो सम्यक्त्व कहते हैं । जो तीनों लोकसे पूज्य, रागादि दोषोंसे रहित, संसारसे तारनेवाला और वीतराग तथा सर्वज्ञ हो, वही सुदेव कहलाता है। जो संसार-सागरसे आप भी पार उतरे और औरोंको भी उतारनेमें नावका काम दे,जो संविक्ष, धीर और सदा सदुपदेश देनेवाला हो, पंच महावतको धारण करनेवाला, तथा मिक्षामात्रसे जीवन-निर्वाह करनेवाला हो, वही सुगुरु कहलाता है और दुर्गतिमें पड़े हुए प्राणियोंकी जो रक्षा करता है, वही धर्म कहलाता है। वह धर्म सर्वज्ञ कथित संयमादि दस प्रकारका है वही मुक्तिका हेतु है। तीनों भुवनमें जिसके विषयमें कोई विवाद नहीं है, ऐसा धर्म वही है, जिसमें त्रस और स्थावर सभी जीवोंपर दया रखना मुख्य माना गया है। - इस प्रकार धर्म देशना श्रवणकर ललिताङ्ग राजाने कहा,"हे भगवन् ! मैं दीक्षा ग्रहण करने में असमर्थ हूं, इसलिये मुझे देशविरति-व्रत दीजिये। गुरु महाराजने कहा, "पहले सम्यक्त्व अङ्गीकार करो बाद देशविरति लेना।" अनन्तर जब राजा ललिताइन्ने सम्यक्त्व अङ्गीकार किया, तब गुरु महाराजने कहा, “हे महानुभाव! मिथ्यात्वका सदात्याग करना चाहिये। कुदेवमें देव-बुद्धि, कुगुरुमें गुरु-बुद्धि और. अधर्ममें धर्म-बुद्धिको ही