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* प्रथम सर्ग *
४६ इधर उस चोरके पीछे-पीछे राजाके सिपाही भी उस वनमें आये और चारों ओरसे उसको घेरकर खड़े हो रहे । सवेरा होतेही राजाके सिपाही जङ्गलमें घुस कर चोरको हुँढने लगे। इतने में पेटीके साथ स्कन्दिल दिखाई दिया। उसे देखते हो वे सब चिल्ला उठे,--“यही है वह चोर, इसे अभी पकड़ो।" यह कहते हुए वे सिपाही स्कन्दिलको गिरफ्तार कर राजाके पास ले आये। ___ इसी समय विद्याधर बना हुआ वह चोर एक बड़ीसी शिला हाथमें लिये आकाशसे ही राजाको सुनाकर बोला, "यह स्कन्दिल मेरा गुरु है, इसलिये जो कोई इसकी बुराई करेगा, उसको मैं यही शिला फेंककर मार डालूँगा।” यह सुन राजा और सब लोग डर गये। राजाने डरके मारे बड़े आदरके साथ कहा,"हे खेचराधीश ! यह तुम्हारा गुरु कैसे हुआ ? इसकी हाल कह सुनाओ।" चोरने सारा हाल कह सुनाया। सब लोग सुनकर बड़े हो आश्चर्यमें पड़ गये। इसके बाद राजाने स्कन्दिलको बड़े सम्मानके साथ उसके घर भिजवा दिया।
जैसे शङ्कासे स्कन्दिलकी विद्यासिद्ध नहीं हुई, वैसे ही शङ्का करनेसे सम्यक्त्वका नाश हो जाता है। इसलिये सोचकर निःशङ्क मनसे सम्यक्त्वकाधारण करना चाहिये। चारित्र-यान टूट जानेपर भी भव्यजीव सम्यक्त्व-रूपी पटरेके सहारे तर जाते हैं। समकिति पुरुषोंको निसर्ग-रुचि आदि दश रुचियोंकोभी हृदयमें धारण करनी चाहियें। इनका विवरण इस प्रकार है :
१ निसर्ग-रुचि-जो बिना ही गुरुके उपदेशके निश्चयसे जी