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* प्रथम सर्गकरनेवाले, दुर्मति देनेवाले, पुण्योदयका नाश करनेवाले तथा दुर्गतिको देनेवाले ऐसे क्रोधका सन्तजनोंको सदा त्याग ही करना चाहिये। फिर जैसे दावाग्नि वृक्षोंको जला देती है, वैसे ही जो धर्मको जला देता है ; जैसे हाथी लताको उखाड़ फेंकता है वैसे हो जो नीतिको उखाड़ फेकता है, जैसे राष्ट्र चन्द्रमाका ग्रास करता है, वैसेहो जो मनुष्योंकी कोर्तिको मलिन करता है और जैसे हवा मेघको उड़ा देती है, वैसेहो जो स्वार्थको चौपट कर देता है और जैसे गरमी प्यासको बढ़ाती हैं, वैसे ही जो आपत्तियोंको बढ़ा देता है और दयाका लोप कर देता है, ऐसे विनाशकारी क्रोधको मनमें स्थान देना कैसे उचित कहा जा सकता है ?
करड और उकरड़ मुनिकी तरह क्रोधका फल महा हानिकारक जानकर संयमी मरुभूतिने फिर अपने मनमें सोचा,"चाहे जैसे हो वैसे कमठके पास जाकर क्षमा मांगनी चाहिये।" मनमें ऐसा विचार कर उसने राजासे जाकर कहा कि मेरी इच्छा होती है कि मैं कमठके पास जाकर क्षमा मागें। यह कह, राजाके मना करनेपर भी वह कमठसे क्षमा मांगनेके लिये जंगलमें चला गया। वहाँ पहुँचकर कमठके पैरों झुककर उसने गद्गद कण्ठसे कहा,-"भाई ! मुझे क्षमा करो। उत्तम जन तभीतक क्रोध करते हैं, जबतक अपराधो आकर पेरोंपर नहीं गिरता। इसलिये अब आप मेरा अपराध क्षमा कर दो।” उसके इस प्रणाम और विनयवाक्योंसे कमठको उलटा क्रोधही उत्पन्न हुआ। वह लजते हुए तेलपर पड़ी हुई जलकी बूंदकी तरह हो गया। उसी समय उसने